AFGANISTAN CRISIS: अफगानिस्तान से अमेरिका(AMERICA) का यूं चुपचाप निकल जाना और तालिबान के लिए रुस( RUSSIA) की नरमी के क्या हैं मायने, हर बार ऐसा क्यों होता है कि मानवीय संवेदनाओं पर राजनीतिक महत्वकांक्षा हावी हो जाती है
अफगानिस्तान(AFGANISTAN) में मौजूदा संकट को एक देश का अंदरूनी संकट मानकर खारिज कर देना या यह कह कर पल्ला झाड़ लेना कि अफगानिस्तान के लिए यह कोई नई बात नहीं है यह तो सीधा-सीधा ग्लोबलाइजेशन शब्द का मखौल उड़ाना होगा.
अगर अफगानिस्तान के संकट को हल्के में लिया गया तो भविष्य में इसके गंभीर परिणाम भी हो सकते हैं, खासकर आतंकवाद जैसी समस्या सबसे बड़ा चिंता का कारण है.
अफगानिस्तान में हुए हालिया बदलाव ने कहीं ना कहीं फिर से विश्व को दो ध्रुवीय विश्व में बदलना शुरू कर दिया है. वैश्विक महा शक्तियों का दो गुटों में बंटना अब साफ़ नजर आ रहा है.
ऐसे हालात में भारत अपने पुराने गुटनिरपेक्ष चरित्र को कितना बरकरार रख पाता है यह तो भविष्य ही बताएगा. लेकिन वर्तमान में अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका और रूस के बीच मतभेद उभर कर सामने आने लगे हैं. जिसकी झलक दोनों देशों के उच्च पदों पर बैठे हुए लोगों के बयानों में देखे जा सकती है.
साल 2003 से ही रूस ने तालिबान को एक आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा है लेकिन रूस के कुछ प्रमुख अखबारों की सुर्खियों पर गौर करें तो वहां तालिबान के लिए आतंकवादी शब्द का इस्तेमाल अब प्रमुखता से नहीं किया जा रहा है, बल्कि तालिबान के लिए चरमपंथी यानी रेडिकल शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है.
वैसे तो अखबारों की सुर्खियों से किसी नतीजे पर पहुंचना इतना आसान नहीं होता लेकिन इससे रूस के राजनीतिक वातावरण की सुगंध तो जरूर मिलती है.
अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के बाद रूस की तरफ से कोई आपत्ति अभी तक दर्ज नहीं कराई गई है. आपत्ति की बात तो दूर रूस ने तो यहां तक कहा है कि तालिबान से कोई खतरा नहीं है. रूस के दूतावास भी अफगानिस्तान में सुचारू रूप से काम कर रहे हैं.
अफगानिस्तान में तालिबानी कब्जे पर रूस की नरमी की एक वजह उसका अमेरिका को कमतर दिखाना भी हो सकता है.
भले ही यह शीत युद्ध का दौर नहीं हो लेकिन अभी भी अमेरिका और रूस के बीच संबंध उतने मधुर नहीं हैं, रूस और अमेरिका हमेशा से एक दूसरे के प्रतिद्वंदी रहें हैं अब यह वैश्विक वर्चस्व की लड़ाई बनती जा रही है.
रूस के मुकाबले अमेरिका ने अफगानिस्तान में सैन्य कार्रवाई के लिए अब तक कई गुना ज्यादा खर्च किया है और अब इस प्रकार से तालिबान का काबुल पर कब्ज़ा कर लेना किसी से आसानी से नहीं पच पा रहा है.
लेकिन अफगानिस्तान के इतिहास पर गौर करें तो वहां कोई भी बाहरी ताकत ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह सकी. चाहे वह 19वीं सदी में ब्रिटेन हो या फिर 70 के दशक में सोवियत संघ, अफगानिस्तान के लड़ाकों से हमेशा शक्तिशाली शक्तियों को मुंह की खानी पड़ी है.
लेकिन एक बात जो कि अब स्पष्ट है जिस पर आमतौर से खुलकर कोई चर्चा नहीं करना चाहता वह है अफगानिस्तान में मौजूदा स्थिति के लिए सीधे तौर पर वैश्विक शक्ति कहे जाने वाले देशों की चुप्पी या कुछ देशों की मौन स्वीकृति ही अंतिम रूप से जिम्मेवार है.