Afganistan से America की आखरी उड़ान क्या इसे अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जे को मान्यता के रूप में देखा जाना चाहिए

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America ने लगभग 20 साल बाद आखिरकार Afganistan से अपने लाव लश्कर को समेट लिया..

कल अमेरिका ने अफगानिस्तान से आखरी उड़ान भरी 19 साल 10 महीने 10 दिन का यह लंबा समय अफगानिस्तान और अमेरिका के लिए बेहद ही महत्वपूर्ण रहा.

लादेन की मौत और अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना ने अमेरिका की साख को और मजबूत कर दिया था.

लेकिन हालिया घटनाक्रम ने इस तिलिस्म को तोड़ दिया, चंद हफ्ते में अफ़ग़ानिस्तान पर फिर से तालिबान का कब्जा हो जाना और तालिबान का विश्व महाशक्ति कहे जाने वाले अमेरिका को अल्टीमेटम देकर अफगानिस्तान छोड़कर चले जाने की धमकी देना एक बेहद ही परेशान करने वाला सवाल है.

जिसे लेकर बड़े से बड़े विश्लेषक के माथे पर बल पड़ रहा है सब की थ्योरी एक ही बात पर ठहर जाती है कि अरबों खरबों डॉलर का खर्च हजारों हजार अमेरिकी और अफगानी सैनिकों की शहादत आखिर क्यों व्यर्थ हो गए.

अमेरिका का इस प्रकार चोरी-छिपे पीठ दिखाकर अफगानिस्तान से निकल जाना बेहद ही आश्चर्यजनक और संदेहास्पद है.

इस से भी बड़ा आश्चर्य अफगानिस्तान में तालिबान को लेकर वैश्विक चुप्पी है, UNSC यानी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में तालिबान को लेकर मौन स्वीकृति भी समझ से परे है.

कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में तो अब यह बात भी सामने आने लगी है कि तालिबान से अमेरिका और कुछ अन्य शक्तिशाली देशों ने बैक डोर बातचीत की है और इस बातचीत का ही परिणाम है तालिबान पर “वैश्विक चुप्पी”.

क्या अमेरिका को चाइना के डर ने अफगानिस्तान से निकलने पर मजबूर कर दिया

अमेरिका के लिए अभी सबसे बड़ी चुनौती अफगानिस्तान नहीं है बल्कि चीन है, ऐसा अब लगने लगा है. कहीं ऐसा तो नहीं चीन और अमेरिका के व्यक्तिगत लाभ और हानि के लिए अफगानिस्तान के लोकतंत्र को बलि का बकरा बना दिया गया है.

चीन खुलकर तालिबान का समर्थन कर रहा है ऐसे में अगर अमेरिका तालिबान के प्रति अपने व्यवहार में परिवर्तन नहीं लाता है तो मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में अमेरिका का दबदबा कम हो सकता है. आर्थिक और रणनीतिक दोनों ही आयामों में दक्षिण एशिया और मध्य एशिया महत्वपूर्ण हैं.

भारत समेत दक्षिण एशिया के सात देश विश्व को एक बड़ा बाजार उपलब्ध कराते हैं. चीन और भारत में तनाव के बावजूद चीन का भारत को निर्यात सरप्लस में रहता है.

दूसरी तरफ अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप लगातार जो वाईडन को चुनौती पेश कर रहे हैं:

ऐसा ना हो कि राष्ट्रवाद को मुद्दा बना कर Donald TRUMP जो बाईडन  को अमेरिकी जनता के सामने विलेन साबित कर दें, कहीं न कहीं यह डर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाईडन को स्वतंत्र फैसला लेने पर अंकुश लगा रहा है.

एक चरमपंथी संगठन जिसे लेकर 2 से भी ज्यादा दशकों तक संपूर्ण विश्व एक सुर में विरोध दर्ज कराता रहा और आज उसके सामने अचानक से यूं नतमस्तक हो जाना “लोकतांत्रिक विश्व” के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं.

क्या भारत अपनी गुटनिरपेक्ष छवि को बरकरार रखेगा या निकट भविष्य में होने वाले चुनावों को ध्यान में रखकर लेगा फैसला

अगर भारत की बात करें तो भारत के लिए फिर से वह समय आ गया है कि वह गुटनिरपेक्ष राजनीति को अपनाकर विश्व में अपनी छवि को बरकरार रखे.

यह इसलिए आवश्यक है क्योंकि जिस प्रकार से अमेरिका ने अफगानिस्तान को अधर में छोड़ दिया कहीं ऐसा ना हो भारत को अभी जल्दबाजी में लिए गए किसी भी फैसले के कारण बाद में पछताना पड़े.

भारत की भौगोलिक और सामाजिक स्थिति ऐसी है जिस कारण अफगानिस्तान में लिया गया कोई भी निर्णय उसे सीधे-सीधे प्रभावित करेगा.

विगत कुछ वर्षों से सत्ता पक्ष हो या विपक्ष मुद्दा राष्ट्रीय हो या अंतरराष्ट्रीय उसे चुनावी लॉलीपॉप के रूप में जनता के बीच पेश करते हैं. इस कारण अफगानिस्तान पर एक तरफा स्टैंड लेना भारत सरकार के लिए जोखिम भरा काम है.

मालूम हो कि 2022 में भारत के सबसे बड़े जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश(UP) में चुनाव होने वाले हैं. साथ ही सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने ही 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भी तैयारियां शुरू कर दी है.

उपरोक्त लेख में प्रकट किए गए विचार लेखक के अपने विचार हैं. इसके लिए  द भारत बंधु जिम्मेदार नहीं है. लेख: “गरिमा भारद्वाज”

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