स्वाभिमान अभिमान जब हो जाता है,
मानव खुद के ही विरुद्ध तब हो जाता है!
गढ़ने लगता है संबंधों की नई परिभाषाएं
कर्ण दुर्योधन का मित्र हो जाता है।
घात-प्रतिघात, वैर-विषय, यही बोझ है
मानव मन का!
चढ़ पाता है वही शिखर जो इस बोझ से
निर्बोझ हो जाता है।
ना सुख मिथ्या है!! ना दुख अमर,
फिर क्यों मानव को हर बार ये
भ्रम हो जाता है।
चित्र, चरित्र पर ही जिंदा रहता,
गाथा यश-अपयश की गाता रहता,
मृत्यु पाकर कोई मर जाता और
कोई अमर हो जाता है।
करके सीमित खुद को खुद तक
क्या पाओगे बोलो तुम !!
उठती है जब अग्नि नीचे से ऊपर,
चहूंओर प्रकाश हो जाता है।
“मरु” बनाकर इस जीवन को,
जो मृगतृष्णा में भटक रहा!!
सांझ ढले फिर राह कहां वो
पाता है।
ना कृपापात्र बनकर जीना
ना कुपात्र बन कर जीना
हष्ट- पुष्ट बीज भी अधिक
गहराई में दबकर नष्ट हो जाता है…..To be continued…..
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